लेकिन सवाल है कि केंद्र ने सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों को क्यों ताक पर रख दिया? चर्चित बोम्मई मामले में सर्वोच्च अदालत ने व्यवस्था दी थी कि बहुमत का परीक्षण सदन में ही होना चाहिए। अदालत के इस निर्देश के पीछे संवैधानिक तकाजों के साथ-साथ धारा तीन सौ छप्पन के बेजा इस्तेमाल का इतिहास भी रहा होगा। उत्तराखंड के मामले में कांग्रेस भले खुद को पीड़ित पक्ष के रूप में पेश कर रही हो, पर केंद्र में अपने लंबे शासनकाल के दौरान उसने बहुत बार विपक्ष की राज्य सरकारों को बर्खास्त किया था। दूसरी केंद्र सरकारों के खाते में भी धारा तीन सौ छप्पन के दुरुपयोग की कुछ मिसालें दर्ज हैं। विपक्ष में रहते हुए भारतीय जनता पार्टी राज्यों के अधिकारों तथा संघीय ढांचे के पक्ष में हमेशा मुखर रहती थी। राष्ट्रपति शासन को वह कांग्रेस की फितरत मानती थी। पर अब भाजपा खुद उसी रास्ते पर चल पड़ी है।
भाजपा ने बोम्मई मामले में दिए सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की भी अनदेखी कर दी और केंद्र-राज्य संबंधों पर बने सरकारिया आयोग की राय की भी, जिसने कहा था कि राष्ट्रपति शासन एकदम विरल से विरल स्थिति में ही लगाया जाना चाहिए। अरुणाचल प्रदेश में चोर दरवाजे से सत्ता पर काबिज होने के कोई महीने भर बाद उसने उत्तराखंड को भी अपने लपेटे में ले लिया। अगर मामला सिर्फ कांग्रेस के अंदरूनी संकट का था, तो हरीश रावत को शक्ति परीक्षण का मौका क्यों नहीं दिया गया? नैनीताल हाईकोर्ट ने राज्यपाल की भी इस बात के लिए खिंचाई की है कि उन्होंने बहुमत के परीक्षण के लिए ज्यादा वक्त क्यों दिया।
राष्ट्रपति शासन के पीछे केंद्र की एक दलील यह भी थी कि विधायकों की खरीद-फरोख्त की कोशिश चल रही थी। पर तब तो यह और भी जरूरी था कि जल्दी से जल्दी बहुमत की परीक्षा हो। राज्यपाल ने इसके लिए ज्यादा वक्त क्यों दिया? फिर उनकी गलती की सजा राज्य सरकार को क्यों दी गई? राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए केंद्र राज्यपाल की रिपोर्ट का हवाला देता है। पर यह विचित्र है कि बहुमत के इम्तहान के लिए राज्यपाल की ओर से मुकर्रर तारीख को केंद्र ने बेमतलब बना दिया। मामले की सुनवाई के दौरान नैनीताल हाईकोर्ट ने यह कहने में संकोच नहीं किया कि राज्यपाल को केंद्र के एजेंट के तौर पर नहीं, बल्कि निष्पक्ष संवैधानिक संस्था के तौर पर काम करना चाहिए। पर यह सिर्फ नसीहत से नहीं होगा, इसके लिए संसद को कुछ ठोस प्रावधान करने होंगे।