फरीदाबाद! सतयुग दर्शन वसुन्धरा परिसर पर आयोजित रामनौमी यज्ञ उत्सव में रामनौमी के यज्ञ उत्सव पर आल वसुन्धरा परिसर की शोभा देखते ही बनती है। लाखो की संख्या में उपस्थित श्रद्धालु आत्मिक ज्ञान से सराबोर होने हेतु नित्य प्रति वसुन्धरा पधार रहे है। सभी के रहने, खाने-पीने की व्यवस्था ट्रस्ट द्वारा नि:शुल्क परिसर में ही की गई है। आज के शुभ दिन ब्रह्मपद के विषय पर प्रकाश डालते हुए श्री सजन जी ने कहा कि जानो ब्रह्मपद सर्वोच्च पद है। इस पद की प्राप्ति प्रत्येक मानव जीवन का सर्वप्रथम व अंतिम लक्ष्य है। अत: निष्काम भाव से इस पद की प्राप्ति हेतु, अविचार छोड़, विचारयुक्त सवलडा रास्ता अपनाओ यानि ब्रह्मविचार पकड़ो और सर्व सर्व् उस ब्रह्म के व्याप्त होने का सत्य दिल से स्वीकारो। जानो इस वृत्ति में ढलना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि सतवस्तु का कुदरती ग्रन्थ कह रहा है:-
ब्रह्म नाम ब्रह्म है ध्यान बेटा, हां हां हां ब्रह्म वचन करो प्रवान बेटा, ब्रह्म विचार नूं फड़न सजन, फिर ब्रह्म है बड़ा महान बेटा
अर्थात् ध्याने योग्य ब्रह्मही सत् नाम है। आशय यह है कि ब्रह्म ही आत्मबोध कराने वाला शब्द है तथा ब्रह्म ही ध्यान यानि मानस अनुभूति या प्रत्यक्ष है। अत: एकाग्रचित्त होकर ध्याने योग्य इस सत् नाम/शब्द ब्रह्म से उद्धृत व हृदय विहित् ब्रह्मवाणी प्रवान करो यानि मनन एवं चिंतन द्वारा अमल में लाओ और ए विध् ब्रह्मविचारों को पकड़ कर यानि अपने स्वभाव या वृत्ति के अंतर्गत करके सर्व महान ब्रह्मपद को प्राप्त करो। जानो ऐसा करने से मन को अपार आत्मसंतोष प्राप्त होगा, चित्त शांत होगा, वृत्ति-स्मृति, बुद्धि व भाव-स्वभाव निर्मल होंगे तथा निर्गुण आत्मतत्व यानि दिव्य ज्ञान रूप आद् ज्योति का अपने मन मन्दिर में साक्षात्कार होगा। ऐसा होने पर शास्त्र अनुसार फिर क्या करना है, वह ध्यान से सुनो:-
जेहड़ा है मन मन्दिर प्रकाश, हर अन्दर है उसे दा निवास, उसे दा दर्शन कीजियो बेटा
अर्थात् जो आत्मप्रकाश हमने अपने मन-मन्दिर में देखा है, हर किसी में उसी के व्याप्त होने का आभास करते हुए, जनचर, बनचर, जड़-चेतन में अपने असलियत प्रकाश को देखना है और सतर्क रहना कि सब कार्यव्यवहार करते हुए हमारा ख़्याल उसी प्रकाश में ठहरा रहे। ऐसा करने से मुस्कराहट आयेगी, बदन प्रफुल्लित होगा, हृदय खिड़ेगा और मुख चमकेगा। इस तरह सजनों जब अन्दर-बाहर दोनो वृतियों में, आत्मप्रकाश पर परिपक्वता से खड़े हो समवृत्ति हो जाओगे तो उस प्रकाश में अपने असलियत ब्रह्मस्वरूप यानि “आत्मा में जो है परमात्मा” उस नित्य समरूप परब्रह्म परमेश्वर के दर्शन होंगे और ज्ञात होगा कि यह जगत और कुछ नहीं अपितु एक ही अगोचर नित्य चेतन स्वरूप की नाना नाम रूपों में अभिव्यक्ति है। यही यथार्थ है व इसके अतिरिक्त और जो कुछ प्रतीत हो रहा है वे सब मायावी और मिथ्या है। ऐसा होने पर सहज ही शास्त्र अनुसार कह उठोगे:-
ब्रह्म स्वरूप है अपना आप, हां-हां-हां-हां,, हम तो हैं सारा प्रकाश जग प्रकाश
ब्रह्म स्वरूप कुल इन्सान, ब्रह्मस्वरूप सारी सगली मान
सारत: श्री सजन जी ने आगे कहा कि हमारी यात्रा स्थूल से सूक्ष्म की ओर, व्यष्टि से समष्टि की ओर, व्यापकत्व से अदृश्यता की ओर है। इसलिए कहा गया है कि:-
“अनडिठी चीज़ को देखो”
शरीरधारियों की ओर से दृष्टि हटाओ, महाराज जी (ईश्वर ) की ओर ध्यान (दृष्टि) जोड़ो।”
अर्थात् विभिन्न रूप, रंग, रेखा से अलंकृत जो देहिक प्राणी हैं, उनकी ओर से अपनी दृष्टि (ध्यान) हटाकर जो इस देह का आधारस्वरूप परमात्मा है यानि देहेश्वर है उसके साथ अपना ध्यान/दृष्टि जोड़ो अर्थात्:-
अन्दर ख़्याल अक्षर वल-दृष्टि लोचे महाराज जी नूं।
कहने का आशय यह है कि अपने ख़्याल को शब्द ब्रह्म- जो आद् अक्षर है, उस सार्थक ध्वनि के साथ जोड़ो ताकि उस दिव्य धुर की वाणी के भाव/धर्म को अर्थसहित ग्रहण कर, जीवन व्यवहार के दौरान उसका प्रयोग करने की कला सीख सको। जानो ऐसा करने से हृदय सदैव एकरस प्रकाशित रहेगा व ख़्याल स्वत: ही स्वच्छ