बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यू) के अध्यक्ष नीतीश कुमार ने एक बार फिर तीसरे मोर्चे जैसे विकल्प की संभावना रेखांकित की है। उन्होंने कहा कि सभी विपक्षी दलों को एकजुट होकर भाजपा के खिलाफ लड़ना चाहिए। अभी तक विपक्षी दल कांग्रेस को निशाने पर रख कर अलग मोर्चा बनाने की बात करते रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने भी कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया। पर अब वह समीकरण बदल गया लगता है। हालांकि नीतीश कुमार ने यह संकेत नहीं दिया कि किन दलों को एक झंडे के नीचे लाने का प्रयास होना चाहिए, पर जाहिर है कि उनकी मुराद समाजवादी विचारधारा में यकीन करने वाले और कुछ बड़े क्षेत्रीय दलों को जोड़ने से होगी। हालांकि यह पहला मौका नहीं है, जब अलग मोर्चा बनाने की बात उठी है। कई बार ऐसे प्रयास हो चुके हैं। कुछ मौकों पर ऐसे गठबंधन को केंद्रीय सत्ता संभालने का मौका भी मिला है, मगर हकीकत यह है कि यह विचार व्यवहार में सफल नहीं हो सका। दो साल पहले लोकसभा चुनाव के समय मुलायम सिंह यादव ने भी तमाम छोटे दलों को जोड़ कर भाजपा और कांग्रेस के सामने तीसरा मोर्चा के रूप में सशक्त चुनौती पेश करने की पहल की थी, पर वह सिरे नहीं चढ़ पाया।
अब नीतीश कुमार भाजपा का भय दिखा कर सभी पार्टियों को जोड़ने की बात कह रहे हैं तो निश्चित रूप से इसके पीछे उन पर बिहार विधानसभा चुनाव में बने महागठबंधन का प्रभाव होगा। मगर व्यावहारिक दिक्कतें यह हैं कि समाजवादी धड़ा वैकल्पिक राजनीति के नारे पर भाजपा और कांग्रेस से ऊबे लोगों का भरोसा जीतने में तो कामयाब हो जाता है, मगर सत्ता समीकरणों के मोर्चे पर उनके राजनीतिक हित टकराने लगते हैं। चूंकि हर क्षेत्रीय दल या फिर कांग्रेस-भाजपा से अलग पार्टी के अपने समीकरण हैं, सबने जाति, क्षेत्र, वर्ग आदि की अस्मिता के नाम पर अपना जनाधार बना रखा है, इसलिए जब वे एक साथ होते हैं तो उनके अपने स्वार्थ टकराने लगते हैं। इसका उदाहरण नीतीश कुमार बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान देख चुके हैं। मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी उनके गठबंधन में शामिल नहीं हुई। क्षेत्रीय स्तर पर सभी विपक्षी दलों के आपस में टकराव हैं। जहां सपा होगी वहां बसपा के लिए साथ देना गवारा नहीं होगा। द्रमुक और अन्नाद्रमुक कभी साथ नहीं होना चाहेंगे। फिर यह भी कि सत्ता में आने के लिए कई क्षेत्रीय दल कभी न कभी कांग्रेस या भाजपा से गठजोड़ कर चुके हैं। नीतीश कुमार खुद इससे पहले भाजपा के सहयोग से सत्ता में रह चुके हैं। ऐसे में वैकल्पिक राजनीति का विचार तब तक स्थायी रूप नहीं ले सकता, जब तक विपक्षी दल अपने राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठ कर एक बड़े सिद्धांत के लिए वचनबद्ध नहीं होते।