Faridabad(standard news on line news portal/manoj bharedwaj) ..ज्ज्कहा जाता है कि अगर किसी राष्ट्र को जानना हो तो सर्वप्रथम वहां के युवाओं के बारे में जानना चाहिए। पथ से वंचित व विचलित युवाओं का साम्राज्य खड़ा करके कभी कोई राष्ट्र अपना चिरकालिक सांस्कृतिक स्वरूप ग्रहण नहीं कर सका है। देश की युवा शक्ति ही समाज और देश को नई दिशा देने का सबसे बड़ा औजार है। वह अगर चाहे तो देश की सारी रूप रेखा बदल सकती है। अपने हौंसले और जज्बे से समाज में फैली कुरीतियों, अपराध व विचलित मानसिकता को जड़ से उखाड़ फेंक सकती है, लेकिन किसी भी राष्ट्र की युवा शक्ति समाज को तभी सही दिशा में ले जा सकती है जब वह स्वयं सही दिशा में अग्रसर हो। दुर्भाग्य से आज भारत की युवा शक्ति कुछ उचित मार्गदर्शन और कुछ विकृत मूल्यों व संस्कृति के चलते अपनी राह से भटकी हुई प्रतीत होती है। इसलिए उभरते भारत में युवा शक्ति की आदर्श भूमिका क्या होनी चाहिए ? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।लिहाजा सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भावी भारत के युवा को सही मायनों में सुशिक्षित होना चाहिए। उसे अपने राष्ट्र व सभ्यता के विकास के का वास्तविक अर्थ समझना चाहिए। पं० दीनदयाल उपाध्याय मानते थे की राष्ट्र का वास्तविक विकास सिर्फ उसके द्वारा किया जाने वाला औद्योगिक उत्पादन और बड़े पैमाने पर किया गया पूँजी निवेश मात्र नहीं है। उनका स्पष्ट मानना था की किसी राष्ट्र का संपूर्ण और समग्र विकास तब तक होता नहीं जब तक की उस राष्ट्र का युवा सुशिक्षित और सुसंस्कृत नहीं हो जाता। सुसंस्कृत से उनका आशय सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान तक नहीं था, बल्कि वह ऐसी युवा शक्ति के निर्माण की बात करते थे जो राष्ट्र की मिट्टी और सांस्कृतिक विरासत से जुड़ाव महसूस करता हो। उनके अनुसार यह तब तक संभव नहीं है जब तक युवा देश की संस्कृति और उसकी बहुलतावादी सोच में राष्ट्र की समग्रता का दर्शन न करते हो। अगर इसे हम भारत जैसे विविधतापूर्ण राष्ट्र के संदर्भ में देखें तो ज्ञात होगा की सांस्कृतिक बहुलता में भी एक समग्र संस्कृति का बोध है जो इसे अनेकता में भी एकता के सूत्र में पिरोये रखने की ताकत रखता है। यही वह धागा है, जिसने विदेशी ताकतों के आक्रमण के बाद भी राष्ट्र को विखंडित नहीं होने दिया। पश्चिमी दार्शनिक मनुष्य के सिर्फ शारिरिक और मानसिक विकास की बात करते हैं, लेकिन अधिकांश भारतीय दार्शनिक व्यक्ति के शारिरिक, मानसिक विकास के साथ ही धार्मिक विकास पर भी जोर देते है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि भारत के युवा वर्ग को अपने भीतर इस सोच को आत्मसात करना चाहिए। उसे भौतिकवादी सुविधाओं और उपभोक्तावाद से निरंतर दूरी बनानी चाहिए। अपने शारिरिक और बौद्धिक विकास के साथ साथ आध्यात्मिक विकास पर भी जोर देना चाहिए। इसी से संबंधित दूसरी बात यह है कि देश के युवाओं को अपने राष्ट्रहित और परंपरा को सर्वोपरि रखना चाहिए। युवा पीढ़ी ही किसी राष्ट्र के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास की नींव तैयार करती है। हालांकि आज के अधिकांश युवा अपनी संस्कृति के प्रतिमानों और उद्यमशीलता को भूलकर रातो रात ग्लैमर की चकाचौंध में किसी भी तरह शीर्ष पर पहुंचना चाहते है, पर वे यह भूल जाते हैं कि जिस प्रकार एक हाथ से ताली नहीं बज सकती उसी प्रकार बिना उद्यम के कोई ठोस कार्य भी नहीं हो सकता। कभी देश की आजादी में युवाओं ने अहम भूमिका निभाई और जरूरत पड़ने पर नेतृत्व भी किया। कभी विवेकानंद जैसे व्यक्तित्व ने युवाओं को कर्मठता का ज्ञान दिया। 1977 में लोकनायक के आवाह्न पर सारे देश के युवा एक होकर सड़को पर निकल आये थे, पर आज वही युवा अपनी आंतरिक शक्ति को भूलकर चंद लोगों के हाथों का खिलौना बनते जा रहे हैं। अतः आवश्यकता इस बात की है कि आज युवा पीढ़ी के प्रति अपने कर्तव्यों को समझे। इसके अलावा देश के युवाओं को अपनी परंपराओं का सम्मान भी करना चाहिये। कालांतर में युवाओं के एक बड़े वर्ग ने आधुनिक मूल्यों के नाम पर भौतिकवाद और अवसरवाद के मूल्यों को अधिक अपनाया। इस कारण वे समाज के आंतरिक स्रोतों को कई बार समझ नहीं पाते। समाज से कटने के कारण ही उन्हें परम्पराओं का महत्व समझ नहीं आता। इसका प्रभाव उनकी शिक्षा पर भी पड़ा है। शिक्षा में सामाजिक और नैतिक मूल्ंो का अभाव होने के कारण वह न तो उपयोगी प्रतीत होती है और न ही युवा वर्ग इसमे कोई खास रूचि लेता है। अतः आज देश के युवाओं को अपनी शिक्षा और संस्कृति को एक साथ जोड़कर देखना चाहिए। किसी भी राष्ट्र की युवा शक्ति का भौतिकवादी होना और राष्ट्र राज्य के प्रति उदासीन होना अत्यंत घातक होता है। देश में ही युवा आबादी का एक बड़ा हिस्सा जिस तरह नशे की गिरफ्त में है, वह इसी की देन है। इसमे दो राय नहीं है कि नेता, शासक, डॉक्टर, इंजीनियर, साहित्यकार, वैज्ञानिक और कलाकार आदि के रूप युवा किसी भी समाज और राष्ट्र के कर्णधार होते है। इन सभी रूपों में उनके ऊपर अपनी सभ्यता, संस्कृति, कला एवं ज्ञान की परंपराओं को मानवीय संवेदनाओं के साथ आगे ले जाने का दायित्व होता है, पर इसके विपरीत अगर वही युवा वर्ग उन परंपरागत विरासतों का वाहक बनने से इनकार कर दे तो निश्चित उस राष्ट्र का भविष्य खतरे में पड़ सकता है। बहरहाल युवा शब्द अपने आप मे उर्जा और आंदोलन का प्रतीक माना जाता है। आज भारत की कुल आबादी में युवाओ की हिस्सेदारी करीब करीब साठ से पैंसठ प्रतिशत है। जाहिर है कि सबसे बड़ी चुनौती इसी युवा शक्ति का संपूर्ण दोहन सुनिश्चित करने की है।