फरीदाबाद। नवरात्रों के प्रथम दिन सिद्धपीठ महारानी श्री वैष्णोदेवी मंदिर में मां शैलपुत्री की भव्य पूजा अराधना की गई। प्रथम नवरात्रों पर प्रात: से ही मंदिर में मां की पूजा अर्चना करने वाले श्रद्धालुओं का तांता लगना शुरू हो गया। मंदिर संस्थान के प्रधान जगदीश भाटिया ने आए हुए सभी भक्तों का स्वागत किया। इस शुभ अवसर पर उद्योगपति केसी लखानी, आर के बत्तरा , आर के जैन एवं पूर्व विधायक चंदर भाटिया ने मां के दरबार में मत्था टेक कर अपनी हाजिरी लगाई। हर वर्ष की भांति इस बार भी वैष्णोदेवी मंदिर के कपाट चौबीस घंटे खुले रहेंगे। इस अवसर पर मंदिर संस्थान के चेयरमैन प्रताप भाटिया, रमेश सहगल, गिर्राजदत्त गौड़, फकीरचंद क थूरिया, प्रदीप झांब, राहुल मक्कड़, धीरज, नेतराम गांधी एवं दर्शनलाल मलिक प्रमुख रूप से उपस्थित थे। इन सभी ने हवन यज्ञ में आहुति डालकर मां का आर्शीर्वाद लिया। इस अवसर पर मंदिर के प्रधान जगदीश भाटिया ने बताया कि नवरात्रों के पर्व पर प्रतिदिन विशेष तौर पर पूजा अर्चना व हवन यज्ञ का आयोजन किया जाता है। उन्होंने बताया कि नवरात्र के प्रथम दिन मंदिर में मां शैलपुत्री की भव्य पूजा की गई। उनके अनुसार मां शैलपुत्री सती के नाम से भी जानी जाती हैं। एक बार प्रजापति दक्ष ने यज्ञ करवाने का फैसला किया। इसके लिए उन्होंनेसभी देवी-देवताओं को निमंत्रण भेज दिया, लेकिन भगवान शिव को नहीं। देवी सती भलीभांति जानती थी कि उनके पास निमंत्रण आएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वो उस यज्ञ में जाने के लिए बेचैन थीं,लेकिन भगवान शिव ने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि यज्ञ में जाने के लिए उनके पास कोई भी निमंत्रण नहीं आया है और इसलिए वहां जाना उचित नहीं है। सती नहीं मानीं और बार बार यज्ञ में जाने काआग्रह करती रहीं। सती के ना मानने की वजह से शिव को उनकी बात माननी पड़ी और अनुमति दे दी। सती जब अपने पिता प्रजापित दक्ष के यहां पहुंची तो देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं कर रहा है। सारे लोग मुँह फेरे हुए हैं और सिर्फ उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया।उनकी बाकी बहनें उनका उपहास उड़ा रहीं थीं और सति के पति भगवान शिव को भी तिरस्कृत कर रहीं थीं। स्वयं दक्ष ने भी अपमान करने का मौका ना छोड़ा। ऐसा व्यवहार देख सती दुखी हो गईं। अपना औरअपने पति का अपमान उनसे सहन न हुआ…और फिर अगले ही पल उन्होंने वो कदम उठाया जिसकी कल्पना स्वयं दक्ष ने भी नहीं की होगी। सती ने उसी यज्ञ की अग्नि में खुद स्वाहा कर अपने प्राण त्याग दिए। भगवान शिव को जैसे ही इसके बारे में पता चला तो वो दुखी हो गए। दुख और गुस्से की ज्वाला में जलते हुए शिव ने उस यज्ञ को ध्वस्तकर दिया। इसी सती ने फिर हिमालय के यहां जन्म लिया और वहां जन्म लेने की वजह से इनका नाम शैलपुत्री पड़ा।
शैलपुत्री का नाम पार्वती भी है। इनका विवाह भी भगवान शिव से हुआ
मां शैलपुत्री का वास काशी नगरी वाराणसी में माना जाता है। वहां शैलपुत्री का एक बेहद प्राचीन मंदिर है जिसके बारे में मान्यता है कि यहां मां शैलपुत्री के सिर्फ दर्शन करने से ही भक्तजनों की मुरादें पूरी होजाती हैं। कहा तो यह भी जाता है कि नवरात्र के पहले दिन यानि प्रतिपदा को जो भी भक्त मां शैलपुत्री के दर्शन करता है उसके सारे वैवाहिक जीवन के कष्ट दूर हो जाते हैं। चूंकि मां शैलपुत्री का वाहन वृषभ हैइसलिए इन्हें वृषारूढ़ा भी कहा जाता है। इनके बाएं हाथ में कमल और दाएं हाथ में त्रिशूल रहता है।