पाटीदार अमानत आंदोलन समिति की मांग के औचित्य पर तो शुरू से सवाल उठ ही रहे थे, इसके आंदोलन के तौर-तरीकों का भी बचाव नहीं किया जा सकता। समिति और सरदार पटेल ग्रुप (एसपीजी) की मांग है कि पाटीदारों यानी पटेलों को ओबीसी कोटे के तहत सरकारी नौकरियों तथा शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण दिया जाए। एक नई मांग यह जुड़ गई है कि उनके नेता हार्दिक पटेल को सरकार रिहा करे। हार्दिक पटेल पिछले साल अक्तूबर से जेल में है, उनके खिलाफ सरकार ने राजद्रोह का मुकदमा दायर कर रखा है। हार्दिक की रिहाई और ओबीसी आरक्षण की मांग को लेकर गुजरात में शुरू हुआ जेल भरो आंदोलन पहले ही दिन हिंसक हो गया।
मेहसाणा में आयोजित पटेल समुदाय की रैली हिंसक भीड़ में बदल गई। दो सरकारी इमारतों में आग लगा दी गई। कई जगह बसें जला दी गर्इं। पुलिस की गाड़ियां क्षतिग्रस्त हुर्इं। भीड़ के पथराव में दो प्रशासनिक अधिकारी और कई पुलिसकर्मी घायल हो गए। अनियंत्रित भीड़ और हिंसा पर काबू पाने के लिए मेहसाणा में कर्फ्यू लगा दिया गया। मेहसाणा के साथ-साथ सूरत और राजकोट में भी इंटरनेट तथा मोबाइल सेवाएं रोक दी गर्इं। कई जगह प्रदर्शनकारियों को हिरासत में ले लिया गया। आंदोलन समिति और एसपीजी ने सोमवार को गुजरात बंद का आयोजन किया। एक आंदोलनकारी ने खुदकुशी कर ली। इस पूरे घटनाक्रम को देखते हुए यही लगता है कि आंदोलन या तो नेतृत्व-विहीन है या उसकी कमान गैर-जिम्मेदार लोगों के हाथ में है। यह पहली बार नहीं हुआ कि आरक्षण के लिए पाटीदारों की रैली हिंसक भीड़ में तब्दील हो गई। आंदोलन पिछले साल जुलाई में शुरू हुआ और एक महीना बीतते-बीतते उसने हिंसक रुख अख्तियार कर लिया था। यह सही है कि आंदोलन से निपटने के लिए सरकार ने जरूरत से ज्यादा बल प्रयोग किया, जिसके फलस्वरूप पाटीदार समुदाय के ग्यारह लोग पुलिस फायरिंग में मारे गए थे। पर पिछली घटनाओं से सबक लेते हुए आंदोलन के नेताओं ने अपनी मुहिम को शांतिमय बनाए रखने की फिक्र क्यों नहीं की। या, वे करना ही नहीं चाहते?
दूसरा सवाल राज्य सरकार या प्रशासन से मुखातिब है। पिछले अनुभवों के मद्देनजर यह आशंका बराबर बनी हुई थी कि आंदोलन किसी भी क्षण हिंसक रूप ले सकता है। फिर, अराजकता तथा उपद्रव को रोकने के पर्याप्त एहतियाती उपाय क्यों नहीं किए गए? आरक्षण के लिए गुजरात में पाटीदार फिर सड़कों पर उतरे हैं तो इसका एक कारण हरियाणा का उदाहरण भी होगा। हरियाणा में जाटों को आरक्षण का लाभ देने के लिए वहां की भाजपा सरकार ने विधानसभा में विधेयक पारित कराया, इस तथ्य के बावजूद कि सर्वोच्च न्यायालय ने इसी आशय के यूपीए सरकार के निर्णय को खारिज कर दिया था। जाटों को आरक्षण के लिए विधेयक पारित कराने से यही संदेश गया कि कोई ताकतवर समुदाय चाहे तो दबाव डाल कर सरकार को झुका सकता है, आरक्षण के मानक उस पर लागू होते हों या नहीं। हरियाणा के जाटों की तरह गुजरात के पाटीदार भी ताकतवर हैं, संख्याबल के लिहाज से भी और राजनीतिक तथा सामाजिक-आर्थिक रूप से भी। जाटों के लिए आरक्षण मंजूर कर चुकी भाजपा अब पाटीदारों की मांग नामंजूर करने के लिए क्या दलील देगी? और फिर आंध्र प्रदेश का कापु समुदाय भी इसी तरह का है, उसे कैसे चुप किया जाएगा? फिर यह सूची कहां जाकर खत्म होगी, कोई नहीं जानता! इसलिए मानकों की अनदेखी कर, सियासी दबाव में आरक्षण का फैसला करना ठीक नहीं होगा।